Monday, December 13, 2010

खेती को भी मिलना चाहिए उद्योग का दर्जा

            अर्थ-शास्त्र कहता है कि  किसी भी उद्योग के लिए भूमि, पूंजी,  बिजली ,पानी  कच्चे माल और  मानव-श्रम अथवा मानव-संसाधन  और बाजार  की ज़रूरत होती है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि सिर्फ लोहा,स्टील , बिजली  सीमेंट, और मोटर-कार बनाने वाली फैक्ट्रियों को ही क्यों उद्योग माना जाए ?  खेती को भी उद्योग का दर्जा क्यों नहीं मिलना चाहिए ? आखिर खेती के लिए भी तो भूमि, पानी , बिजली , कच्चे-माल के रूप में खाद और बीज खरीदने के लिए पूंजी और अपने उत्पादन की बिक्री के लिए बाज़ार की ज़रूरत होती है.कहने का मतलब यह कि एक उद्योग की स्थापना और उसके संचालन के लिए जिन बुनियादी चीजों का होना ज़रूरी है, उन सभी चीजों की ज़रूरत खेती में भी अनिवार्य हैं. अगर उपभोक्ता-वस्तुओं की उत्पादन-प्रक्रिया को उद्योग कहा जाए , और उसके मालिकों को उद्योगपति,  तो कृषि-उत्पादन के आधार पर खेती को भी उद्योग मानते हुए किसान को उद्योगपतियों की श्रेणी में मान लिया जाना चाहिए .मै तो कहना चाहूँगा कि अन्य किसी औद्योगिक उत्पादन से ज्यादा ज़रूरी है कृषि-उत्पादन. खेतों में अनाज नहीं उगेगा तो दुनिया भूख से मर जाएगी . तब लोहा और सीमेंट खा कर तो कोई ज़िंदा नही रह पाएगा ?   ज़ाहिर है कि खेती भी एक उद्योग है और वह इंसान के ज़िंदा रहने और दुनिया को ज़िंदा रखने के लिए सबसे बड़ा उद्योग है. इस नाते देखा जाए तो किसान भी एक उद्योगपति है , जो अपने खेत रूपी उद्योग में तरह-तरह की फसलों के उत्पादन से लाखों-करोड़ों इंसानों का पेट भरता है. उसके अनाज से अपनी भूख मिटा कर ही हम सब इस दुनिया में ज़िंदा रहते आए है. ऐसे में अब ज़रूरत इस बात की है कि औद्योगिक-विकास के इस दौर में खेती को भी उद्योग का दर्जा मिले , ताकि हमारा किसान भी गर्व के साथ यह कह सके कि वह स्वयं एक उद्योगपति है .ये खेत उसके उद्योग हैं , जिन्हें वह किसी दूसरे प्रकार के उद्योग के लिए किसी सेठ को या किसी पूंजी-निवेशक को किसी भी कीमत पर नहीं दे सकता .
लेकिन भारत जैसे विकास-शील देश में इस बारे में शासन तो क्या आज किसान और किसानों के नेता भी गंभीरता से नहीं सोच रहे हैं.  कोई भी सेठ-साहूकार , या किसी बड़ी कंपनी के मालिक , देश में कहीं भी अपने लोहे जैसे कठोर दिल के साथ  लोहे का, सीमेंट का या नहीं तो मोटर-कार जैसी किसी  बेजान वस्तु का उद्योग लगाने पहुँच जाते हैं और किसानों से साम-दाम -दंड-भेद के हर नाजायज तरीके अपना कर औने-पौने भाव में उनकी ज़मीन खरीदने की कोशिश करते हैं .पंचायत राज अधिनियम में यह प्रावधान है कि ग्राम-सभा की अनुमति के बिना कोई भी उद्योग किसी भी गाँव की भूमि पर नहीं लग सकता . इसके लिए जन-सुनवाई भी ज़रूरी है . लेकिन कुछ  प्रभावशाली लोग स्थानीय-शासन और प्रशासन के लोगों को खरीद लेते हैं और उनके सहयोग से फर्जी ग्राम-सभा और फर्जी जन-सुनवाई करके किसानों की भूमि हड़प लेते हैं . किसान को मुआवजे के नाम पर कुछ रकम देकर उसे चलता कर देते हैं . जो किसान अपनी ज़मीन नहीं बेचना चाहता , , ये धन-पशु उसके  खेतों के अगल-बगल और आगे-पीछे की भूमि हर नाजायज़ और हर अनैतिक तरीके से खरीद कर उस बेचारे अकेले किसान का उसके खेत तक आना-जाना मुश्किल कर देते हैं . तब उसे मजबूरी में अपनी ज़मीन बेचनी पड़ती है. उद्योगों के नाम पर भारत में किसानों से उनकी ज़मीन छीनने का यह कुचक्र लगातार चल रहा है. भू-मंडलीकरण और  आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में तो यह कुचक्र और भी तेजी से चल रहा है. आज से कुछ साल पहले तक हमारे यहाँ के अनेक सांसद , विधायक , विचारक , लेखक और चिंतक बड़े ही जोर-शोर से खेती को उद्योग का दर्ज़ा दिलाने की मांग किया करते थे . अखबारों में उनके बयान और आलेख भी छपा  करते थे. लेकिन अब उन्होंने एक रहस्यमयी खामोशी ओढ़ ली है . यही कारण है कि अब किसान के पक्ष में बोलने और खड़े होने वाला कहीं कोई नज़र नही आता. किसान की हालत उस बेचारे बकरे की तरह हो गयी है , जिसे लोहा-लक्कड के उद्योग लगाने को आतुर कुछ पूँजी-निवेशक और धन-पशु हर हालत में नोच-खसोट कर लूट लेना चाहते हैं . इसी वजह से देश में खेती का रकबा दिनों-दिन घटता जा रहा है और खेती की ज़मीन पर कारखाने , शॉपिंग मॉल  और धन-पशुओं की कॉलोनियां खड़ी हो रही हैं. इस भयानक संकट से निपटने के लिए अगर किसान खुद संगठित नहीं हुए तो एक दिन वे स्वयं मिट जाएंगे और तब दुनिया के नक़्शे से भारत के कृषि-प्रधान राष्ट्र होने की पहचान भी मिट जाएगी .इस संकट से उबरने का एक ही उपाय है कि हमारे मेहनतकश किसान अपने खेतों को उद्योग मानें और स्वयं को उद्योगपति. जब भी कोई कंपनी अपने किसी उद्योग के लिए किसान की ज़मीन मांगने आए , तो वे उसे बता दें कि हम भी उद्योगपति हैं , खेती हमारा उद्योग है. हम किसी दूसरे उद्योग के लिए अपना उद्योग किसी भी कीमत पर नहीं बेचेंगे .
                                                                                                               भारत वाणी